जो लोग मुझे व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं, वे शायद मेरी इस विचारधारा से शंकित होंगे, कि वीर और औज रस से प्रभावित मेरी कलम क्या इस तरह का भी कुछ लिख सकती है? मेरी कलम ने सुख- दुःख, आक्रोश, पीड़ा, सौहार्द्य इत्यादि भाव प्रस्तुत किए है लेकिन कभी युद्ध का प्रोत्साहन नहीं किया है।
वीर रस के आवेग में यह कहना और प्रोत्साहित करना बहुत आसान है की दुश्मन से युद्ध करो, युद्ध ही वीर का प्रमाण है।
किंतु क्या वीरता और पराक्रम सिर्फ युद्ध तक सीमित है या सच्ची वीरता का प्रारब्ध क्षमा और शांति में निहित है।
आदि काल से "अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: " जैसे संस्कृत श्लोको को लोगो ने अपने हिसाब से अर्थ निकालकर खूब परोसा। जब हजारो, लाखो लोग मर रहे थे, धर्म-समाज और देश को भीषण अग्नि में जलाया जा रहा था तब किसी ने श्लोक के अग्रिम आधे भाग को गौरव से पेश करते हुए सिर्फ अहिंसा का मार्ग प्रशस्त किया, वही सत्तावासना के चरमपंथी मोह में एवं गुटबंदी के अति उत्तेजित इरादों के चलते कुछ लोग पिछले आधे भाग को भी पेश करते रहना नहीं भूले। इस वाक्य से लोगो ने हिंसा को भी जायज ठहराया तो कुछ ने अहिंसा ही एकमात्र विकल्प के समान प्रदर्शित किया। इस पंक्ति के पीछे कवि का वास्तविक भाव समझने का प्रयास कम ही हुआ। वैसे तो इस श्लोक की पृष्ठभूमि महाभारत थी, लेकिन फिर भी कवि की मंशा को संशयहीनता और परिपूर्णता से समझना शायद कठिन है क्युकि जिस तरह धर्मयुद्ध महाभारत का सुशोभित ललाट है उसी तरह शांति महाभारत की रीढ़ अस्थि है। वो चाहे पांडवो का बार-बार शांति प्रयास हो, या कृष्ण का शिशुपाल वध से पहले क्षमादान या युद्ध के पूर्व भी कृष्ण द्वारा संप्रेषित शांति सन्देश।
मेरे मत में इस श्लोक का अर्थ यह होगा कि, अहिंसा और शांति मानव का पहला धर्म है, और इसी की स्थापना मानव का प्रथम कर्तव्य है, लेकिन जब क्रूरता, बर्बरता और अत्याचार इस हद तक हावी हो जाए कि वो प्रथम कर्तव्य को ही विदीर्ण करने लगे, मुख्य धर्म ही क्षतिग्रस्त होता दिखे, और गूढ़ मानवता ही आहत होने लगे, अर्थात जब शांति स्थापना ही धूमिल होती दिखे, त्रास व्यक्तिगत ना रहकर सामाजिक अंग बनने लगे, उस स्थिति में शांति की स्थापना हेतु एवं धर्म के पुनर्जीवन के मंषार्थ शस्त्रधारण एवं अधर्म के लिए हिंसा सुलभ है। यह श्लोक किसी एक मत का पूर्ण समर्थन नहीं करता, अपितु यह धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा के बीच की अत्यंत बारीक लकीर को उजागर करते हुए, दोनों मतो में संतुलन स्थापित करने का प्रयासमात्र है।
अत्याचार क्रूरता आदि की पराकाष्ठा को समझने के लिए कोई मापदंड स्थापित नहीं किया जा सकता, और ना ही त्याग और बलिदान का एक सांचा बनाकर सहनशीलता का एक मानक तय किया जा सकता है, इसलिए कब अनाचार निजी बलिदान और त्याग से बढ़कर धर्म की ही आहुति को आतुर होने लगे, इस भेद को समझना अतिआवश्यक है।
लड़ाई और युद्ध तो प्रथ्वी पर जीवन के प्रथम अंकुर के समय से विद्यमान है और शायद ये जब तक प्रथ्वी पर चराचर जीव रहेंगे तब तक युद्ध होते रहेंगे, मनुष्य के अलावा कोई पशु पक्षी कीड़े इत्यादि भी इस युद्ध से अछूते नहीं हैं, कोई इलाके के लिए तो कोई भोजन के लिए, परन्तु युद्ध जीवन का एक अभिन्न अंग है। किन्तु समझदार और सर्वसंपन्न होने के नाते अगर हम इसके मार्मिक परिणामों का अवलोकन भी ना कर पाए, तो हमारा स्वयं को बुद्धिजीवी कहना सर्वदा के लिए प्रश्नचन्ह से परिपूर्ण रहेगा।
अगर इतिहास को खंगाला जाए तो युद्ध ही इतिहास का सबसे पसंदीदा छंद है, युद्ध के बिना इतिहास एक निर्जीव बीहड़ वन के जैसा है जिसने कई अनगिनत सभ्यताओं, शैलियों को देखा अवश्य है, परंतु आज उसके पास इस समूची जानकारी और प्रतिदिन छिन्न भिन्न होती यादों के ढेर के अलावा कुछ नहीं है, लेकिन युद्ध का भाग उस निर्जीव वन रूपी इतिहास में, बारिश की पहली फुहार में सर उठाती नई कोपल, समय के साथ उसका धीरे धीरे बड़ा होना, एक व्रक्ष के आकार धारण करने के जैसी एक जीवंत कहानी के जैसा है।
युद्ध ने हमेशा से इतिहास के अवशेषों को विषय देकर पोषित किया है परन्तु इतिहास कभी युद्ध के अवषेशों को पोषित नहीं कर पाया। इतिहास हमेशा से विजय पराजय, शोर्य, पराक्रम की बाते परोसता रहा लेकिन कालचक्र के भीषण कोप में युद्धोपरांत मरुस्थलों, मृतकों, अनाथों, विधवाओं को सहेजने में इतिहास हमेशा से निर्बल रहा है।
युद्ध के बाद का मार्मिक दृश्य किसी भी शूर-वीर की हड्डियां कपाने के लिए पर्याप्त है, क्युकि वीर मृत्यु से कदाचित नहीं डरते, लेकिन युद्ध के उपरांत प्रस्तुत होने वाले उस विहंडम दृश्य से अवश्य सहम जाते है जिसमें कई अब्लाए युद्ध भूमि में अपने पति के पार्थिव शरीर का आलिंगन करती हुई विलाप करती दिखाई देती हैं, अनाथ बच्चे रोते रोते खुद कुम्हालाने लगते है, एवम् वृद्ध माता पिता अपने वीर बेटे को जगाने का हर संभव प्रयास करते करते खुद मरणासन्न से प्रतीत होते हैं। परिवारों में कांधा देने वाला कोई नहीं होता और स्त्रियां बेसुध दिखाई देती है, ऐसी घनघोर पीड़ा में यदि शासक विजय पताका फहराता हुआ निकले, तो वो मन ही मन कितना क्रंदित होगा। लेकिन ऐसे विचार यदि शासकों को युद्ध के पहले स्पर्श हो जाते तो शायद आज इतिहास आधा होता और जन समुदाय दुगना।
इतिहास ने अपनी पैनी नजर से सब कुछ देखा है लेकिन हमने सिर्फ उसका अर्जन किया है जिससे हम सबसे अधिक आकर्षित और प्रभावित हुए है। युद्ध, मार-काट में मानव ने शोर्य तो बखूबी ढूंढ लिया परन्तु उसमें निहित रुदनकारी पीड़ा को मानवों की अमानवीय आंखे नहीं देख पाई।
सिर्फ तीन शासकों को महान की उपाधि से संभोदित करने वाले इतिहास ने कितनी पीड़ा को अपने अंदर समेट कर रखा है यह भी समझने का विषय है।
पाटलिपुत्र नरेश सम्राट अशोक ने अपने अजेय पराक्रम से सत्ता हासिल की, इसके लिए उन्हें अपने भाई को भी मृत्यु के घाट उतारना पड़ा। कुछ दंतकथाएं तो कहती है कि उन्होंने एक नहीं, बल्कि अपने सौ भाईयो को मृत्यु भेट चढ़ाया था। यही नहीं, उन्होंने अपने आस पास के राज्यो का भी विलय कर स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट की उपाधि से विभूषित किया। शिकार पसंद और जीवन के प्रथम चरण में क्रूर कहे जाने वाले महाराज ने कभी ना पराजित होने वाले कलिंग पर भी आक्रमण कर उसे अपने आधीन कर किया। लेकिन इस हृदय स्प्रंदनिय युद्ध ने एक लाख लोगों की जान ले ली और वहीं एक लाख अस्सी हजार से ज्यादा लोगो को घायल कर दिया। युद्ध के बाद के इस हृदय विदारक दृश्य को देखकर सम्राट पश्चाताप के घोर विलाप में डूब गए एवम् आजीवन युद्ध ना करने का संकल्प कर, सम्राट ने बुद्ध धर्म स्वीकार किया, और शांति के उपदेश कई देशों में स्वयं जा जा कर दिए। कलिंग के युद्ध ने, वहां पड़ी हुई लाशों ने सम्राट अशोक के जीवन पर, क्रिया कलापों पर एवम् सकल विचारधारा पर एक अभूतपूर्व परिवर्तन का प्रकाश अंकित किया, एवम् इसके बाद से नरेश सम्पूर्ण प्रजापालक, न्यायप्रेमी और शांति के बीज स्तंभ की तरह प्रतिपादित हुए।
उसी तरह महान अकबर और महान एलेक्सजेंडर (सिकंदर) ने जीवन भर कई युद्ध किए। अपने अथाह पराक्रम से सभी को आधीन करते करते अपना जीवन व्यतीत किया और अंत में एलेक्सजेंडर किसी बुखार से मारे गए, कुछ लोग उन्हें विद्रोहियों द्वारा जहर से मारने की बात भी कहते है एवम् अकबर ने अपने ही दो बेटों के सत्तमोह के चलते पिता के खिलाफ उठते विद्रोह एवम् पेचिश की बीमारी का इलाज ना हो पाने की वजह से अकाल मृत्यु की आखरी सांसे ली ।
महाराज अशोक इस मर्म को जीते जी समझ गए थे, उन्होंने पश्चाताप की अग्नि में शेष जीवन भर प्रायश्चित किया। यह शांति पाठ समझने के लिए कई सैनिकों योद्धाओं को अपनी बली देनी पड़ी, लेकिन उतना ही बाद में सम्राट अशोक ने बुद्ध के शांति संदेशों को पूरे एशिया महाद्वीप में प्रसारित कर ख्याति का स्थान प्राप्त किया। उन्होंने बुद्ध के शब्दों और स्वयं के उन्माद को हर देश में प्रसारित करके सिर्फ शांति का मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन अकबर और एलेक्सजेंडर अंत तक भी इसे बिना समझे ही आगे बढते गए, और इतिहास को अपने पराक्रम के साथ साथ सिर्फ मातम और विलाप रूपी अंधकार दे गए।
अगर राजा कोई कवि या लेखक हो तो वो युद्ध की उद्घोषणा शायद कभी नहीं कर सकता क्योंकि जिस तरह लेखनी अपने कालजई अक्षरों को अमिट भविष्य पर लिख देती है उसी तरह वह लेखक को विचारो की अथाह गहराई तक पहुंचा देती है और संवेदना के अति सूक्ष्म खंडहरों से साक्षात्कार कराती हैं। इसलिए कोई कवि या लेखक तलवार की चमकती धार पर तो लिख सकता है परन्तु उसी तलवार से टपकते लहू के कणों पर नहीं लिख सकता। आदरणीय अटलजी भी यही कहते थे कि "..कहीं कोई कवि यदि डिक्टेटर भी बन जाए, तो वह निर्दोषों के खून से अपने हाथ नहीं रंगेगा ।"
लेकिन यह भी विडम्बना ही है कि इन निर्मम युद्धों को लिखने वाले भी लेखक और कवि ही थे, शायद उन्होंने आग्रिम पीढ़ियों की शिक्षा देने के लिए इनका विस्तृत वर्णन किया होगा।
कुछ भी हो, इससे युद्ध के घातक परिणामों और जर्जर दृश्यों को नकारा नहीं जा सकता। युद्ध की यही प्रकृति है और इसी प्रकृति के आधीन युद्ध का समापन है।
समयचक्र अपने कालक्रम में इसी परिस्थिति का बार बार परिचित्रण करता है, युग युगांतर में कई बार इस दृश्य को संपादित करके अभिमंत्रित करता है और हर युग के प्रत्येक काल खंड में इसे पहले से और अधिक वीभत्सता से प्रायोजित और संरचित करता है।
लाशों का यही दृश्य राम रावण युद्ध में भी था। समूचे राक्षस कुल का विनाश, लंकापति दशानन रावण, महाबलशाली कुंभकर्ण, महापराक्रमी मेघनाद जैसे असंख्य योद्धा उस महासंग्राम में मृत्यु के आगे धराशाही हो गए और पीछे उसी मरुस्थल के अंधकार को अपनी विधवाओं और बच्चो के विलाप के लिए छोड़ गए।
श्री राम जन्म मरण की परिपाटी के ज्ञाता थे और इसीलए वे बारम्बार शांति की अगुवाई करते रहे। वे अंत तक भी यही चाहते थे कि रावण उनके शांति प्रस्ताव को मानकर युद्ध की भाषा छोड़ दे एवम् धर्म का अनुसरण करते हुए माता सीता को आदर से लौटा दे, किन्तु स्वयं नारायण के हाथो मरना ही रावण की ख्याति का विषय था। रावण के एक अहंकार और युद्ध पिपासा ने समूची लंका नगरी को मरुस्थल बना दिया। अगर रघुवर क्रोध के आवेश में शांति सन्देश की अगुवाई नहीं करते तो आज तक श्रीराम को अपनी बेगुनाही की दलीलें देनी पड़ती। अगर श्री राम की ओर से थोड़ी भी त्रुटि होती तो इतने मृतकों के लिए आज तक मर्यादा पुरुषोत्तम को सवालों के कटघरे में खड़ा किया जाता। ठीक वैसे ही जैसे सर्वदा धर्म का अनुपालन करने वाले धर्मराज युधिष्ठिर से आज भी द्युत अर्थात जुआ खेलने के कृत्य पर प्रश्न चिन्हित किया जाता है। एक तरफ प्रजा पालन को अपना परमधर्म बताते हुए राम ने अपनी पत्नी तक का परित्याग कर दिया था और द्वापर में प्रजा और राज्य को राजा द्वारा जुए पर लगाया जाना, अपने सभी अनुजो को और अपनी पत्नी को चोसर पर ला देना , हमेशा के लिए सही गलत के तराजू पर विवेक का विषय होगा? धर्मराज का धर्म कदाचित शंका का विषय नहीं है और ना ही दुर्योधन का अधार्मिक दुराचरण। लेकिन जिस महाभारत के महायुद्ध में 1 अरब 66 करोड़ से ज्यादा योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए, 25 हजार के लगभग अज्ञात हो गए, ऐसे युद्ध की पृष्भूमि पर हमेशा सवाल उठता रहेगा कि पांडव कुमारो का लगाम रहित जुआ कितना जायज था? दुर्योधन का व्यवहार तो मानवता की किसी परिभाषा में संकलित करने के योग्य नहीं, परन्तु पांडवो ने द्युट क्यों खेला। हालांकि लोकाचार के हिसाब से उस समय द्युत का निमंत्रण युद्ध के लिए ललकारने जैसा था, जिसे नकारना किसी राजा के लिए ना सिर्फ लज्जा का विषय होता बल्कि उनकी क्षत्रियता और वीरता के भी विरुद्ध होता। दुर्योधन और मामा शकुनि के बार बार ललकारने पर पांडव कुमारों को जुए में सम्मिलित होना भी पड़ा, तो कुछ पारिवारिक-राजकीय मर्यादाएं क्यों नहीं बांधी गई।
मैं महाभारत पर प्रश्न नहीं कर रहा, मै ना तो इतना सामर्थ्यवान हू और ना कभी हो सकता हूं की इतनी महामहिम इश-लीला पर, इतने प्रचंड योद्धाओं पर, इतने प्राचीन कालदर्शन की विशालता पर, इतने संपन्न काव्य पर, और इतने महान ज्ञान सागर पर अंश मात्र भी शंका की टिप्पणी करके प्रश्न कर सकू, लेकिन मेरा उद्देश्य उस भीषण भयावह मानव त्रास की पृष्भूमि समझना है, जिसने कुरुक्षेत्र की भूमि को इतना रक्तरंजित कर दिया कि वह भूमि हमेशा के लिए लाल हो गई। जीत के पश्चात जब द्रोपदी ने नगर भ्रमण किया, तो उसे सिर्फ विलाप करती हुई विधवाएं ही दिखाई दी, और माना जाता है इसके बाद सारे पांडव इतने दुखी हुए कि वे सभी राज-पाठ छोड़ कर हिमालय पर चले गए। इतनी भयावह जीत के बाद कोई भी राजा हो, अगर नगर में विजय ध्वज लेकर भ्रमण करे तो उसकी आंखे पश्चाताप और शर्म से झुक जाएंगी। उसका सारा यश पिघल कर पसीने की भांति बह जाएगा।
इसी संदर्भ में अपनी एक कविता अंकित करता हूं-
सबने लहू से पांचाली को, केश धोते देखा होगा
पर कितनो ने राज्य में लोगो को, रोते हुए देखा होगा,
जीत गए वे धर्मयुद्ध पर गृहयुद्ध तो हारे गए
दोनों ओर के कुलदीपक जब अपने हाथों मारे गए,
दशो दिशाएं, वन, पर्वत जब जय जयकार लगते होंगे
सूर्य चंद्र भी हस्तिनापुर की आज्ञा से आते-जाते होंगे,
तारामंडल की आभा में, राजतिलक दिखाई देता होगा
सर असुर नाग गंधर्वो से जयजयकार सुनाई देता होगा,
नवो ग्रह, सातो पाताल कृष्ण महिमा गाते होंगे
धर्मराज के धर्मयुद्ध की, धर्मापताका फहराते होंगे,
भू-जल-अम्बर-अनिल-अनल में, जब हुंकार लगाई जाती होगी
वन पर्वत और नदियां थर्र थर्र कांपे थर्राती होगी,
राजभवन के सारे गुंबज जब सिंहनाद करते होंगे
तब महलों के सारे खंबे घोर विषाद करते होंगे,
सारी जयनादो के बीचों में एक ओर स्प्रंदन धधकता होगा
टूटी हुई चूड़ियों का जब अग्नि रुदन सुलगता होगा,
रोती विधवाएं और बालक अनाथ, जो रो रो कर व्यथा बताते हैं
इतिहास के पन्नों में वो शोर्य,गौरव से लिखे जाते है,
ऐसा दारुण दृश्य देखकर जो आंखे सहमा जाती हैं
वहीं युद्ध के अंतिम परिणाम और, भीषण विलाप बताती है,
जो हार गया रणवीर हुआ, जो जीत गया वो हारा है।
अनगिनत अश्रुओं पर विजयरथ जिसने, चढाया और उतारा है।।
यथार्थ तो यह है कि जिस तरह प्रतिशोध युद्ध की जननी है, पश्चाताप उस युद्ध का वंशज हैं, जो अपनी भीषण निर्मोही ज्वाला में सबको विलीन करके आसुओं के अथाह दलदल में विजेता को छोड़ देता है।
इससे कदापि यह नहीं कह सकते कि युद्ध मानवता पर एक अभिशाप है। जब शांति स्थापना के सारे मार्ग बंद हो जाते है, तो कई बार अत्याचार अनाचार रोकने के लिए युद्ध ही विकल्प शेष रह जाता है। स्वयं देवताओं को, श्री राम और कृष्ण को भी कई बार युद्ध करना पड़ा था। तो प्रश्न उठता है कब तक शांति मार्ग सुलभ है और कब युद्ध?
यही उत्तर वह श्लोक देता है, "अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: "
अर्थात तर्कसंगत यह है कि समर्थन और अहिंसा तो सहचर है ही, परन्तु विरोध की शुरुआत युद्ध से नहीं होनी चाहिए। युद्ध एक अत्यंत विकट और गंभीर परिस्थिति है। जब सारे शांति प्रयास सामर्थ्यहीन हो जाए, दुष्कर्म हावी हो और सहनशीलता के सारे घड़े फूटने लगे एवम् जन कल्याण के लिए ओर कोई विकल्प शेष और पर्याप्त ना बचे, तब युद्ध करना तर्कपूर्ण है। युद्ध कोई अपवाद नहीं है लेकिन युद्ध का अपवाद के तौर पर ही उपयोग और उपभोग करना चाहिए। साथ ही युद्ध के भावी परिणामों की गंभीरता और स्वीकार्यता का गहन चिंतन किए बिना, किसी युद्ध का विचार अत्यंत घातक और भयावह साबित हो सकता है यह कभी ना खत्म होने वाले पश्चाताप की भी मूल जड़ है इसलिए इससे पूर्व सारे अन्य मार्गों और युद्ध टालने के हर संभव विकल्पों का पूर्णता से विवेचन करना ही विवेकसंगत है। युद्ध अंतिम विकल्प है, तो इसका प्रयोग अंत में ही होना चाहिए।
लेकिन एक और विडंबना यह भी है कि सभी के सहनशीलता के मायने अलग अलग है। किसी के लिए अपशब्द सुनना ही सबसे दुर्गम और असहनीय है तो कोई शांति स्थापना करने के लिए, लोगो के बड़े से बड़े पापों और अपराधों को भी क्षमा कर सकता है। किसी के लिए परमार्थ सबसे पुज्यनीय क्रिया है और किसी को जन-समुदाय से मायामुक्ति एवं किसी के बीच में हस्तक्षेप ना करना ही सबसे उचित प्रस्तुत होता है। अपने-अपने तर्कों के कारण दोनों अवधारणाओं में से किसी एक को गलत कहना मुमकिन नहीं है। अपने-अपने मतों से दोनों ही न्यायसंगत लगती है, ऐसे में इसका उत्तर सिर्फ आत्मीय स्वविवेक ही दे सकता है क्युकि यह एक वस्तुनिष्ठ विषय है जिसका विज्ञान की भांति सिद्धांतीकरण किया ही नहीं जा सकता।
दैनिक जीवन में विवाद की स्थिति आना आम है और आधुनिक परिवेश में जब सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते है तब तो यह और भी सामान्य रोज़मर्रा के जैसा हो जाता है। तो मुख्य प्रश्न युद्ध का औचित्य न रहकर, युद्ध की विशालता रह जाती है कि किसी विवाद को हम कितना विशाल होने दे। जिस तरह युद्ध की स्थितियों का प्रायः अंत नहीं है, उसी तरह इस प्रश्न का भी सीधा अंत नहीं है कि युद्ध की कितनी विशालता स्वीकार योग्य है । यह पूर्णतः विषय की गहराई, अहमियत और हमारे विवेक पर आश्रित है।
लेकिन फिर भी युद्ध और शांति के बीच के अति लघु लेकिन परिपक्व भेद को महाभारत का वह श्लोक बखूबी समझा देता है जिसे और अधिक विश्लेषण के साथ जीवन में धारण करना चाहिए..."अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: "
पार्थ गुप्ता |
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